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                             आपकी पॉलिटिक्स क्या है प्रशांत किशोर


भारत की चुनावी राजनीति में खासा दख़ल रखने वाले प्रशांत किशोर दो बातों में बेहद माहिर हैं, पहली चुनाव जीतने के लिए रणनीतियां बनाना और दूसरी खुद को किसी न किसी तरह चर्चा में बनाए रखना। भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में लगभग एक दशक से प्रशांत किशोर लगातार किसी न किसी तरह सक्रिय रहे हैं। 2014 के आम चुनावों से लेकर बिहार, पंजाब, प.बंगाल, तमिलनाडु आदि के चुनावों में उन्होंने रणनीतियां बनाई हैं, जो अक्सर कामयाब साबित हुई हैं। प्रशांत किशोर की विचारधारा क्या है, इस बारे में कुछ भी पुख्ता तौर पर कहना मुश्किल है। मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो पूछा जा सकता है कि 'आपकी पॉलिटिक्स क्या है प्रशांत किशोर'। बहरहाल, वे नरेन्द्र मोदी, ममता बनर्जी, कैप्टन अमरिंदर सिंह, स्टालिन, नीतीश कुमार जैसे तमाम विपरीत विचारधारा वाले नेताओं के साथ क़रीब से काम कर चुके हैं। उन्होंने चुनाव के लिए जो रणनीतियां बनाईं, उनके कारण इन नेताओं को जीत हासिल करने में आसानी हुई।
लेकिन यहीं भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बड़ी चेतावनी भी है। क्योंकि लोकतंत्र में चुनाव प्रत्याशी के चेहरे के साथ-साथ विचारधारा का आधार होता है, जिससे देश के भविष्य की रूपरेखा तय होती है। चुनाव केवल तात्कालिक लाभ-हानि के मुद्दों पर नहीं होता, इसमें दीर्घकालीन सोच भी देखी जाती है। और हर चुनाव हार-जीत से परे जनता को राजनैतिक तौर पर सजग और शिक्षित करने का माध्यम भी होता है, तभी लोकतंत्र सही मायनों में विकसित होता है। लेकिन प्रशांत किशोर जैसी सोच रखने वालों ने चुनावों को महज हार-जीत का खेल बना दिया, जिसमें जीत के लिए सारे दांव सही माने गए। चुनावों को मैनेज करने की यह नयी परिपाटी लोकतंत्र के लिए घातक है, मगर अब अधिकतर दल और नेता इसमें फंस चुके हैं।
अलग-अलग राजनैतिक दलों के घाटों से पानी पीने के बाद प्रशांत किशोर ने कांग्रेस में भी कुछ वक़्त तक डेरा जमाने की कोशिश की थी। कांग्रेस को मजबूत करने के लिए कुछ लंबे-चौड़े प्रस्ताव भी उन्होंने दिए थे। हालांकि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की थाह लेना इसके अपने नेताओं के लिए ही मुश्किल है, फिर प्रशांत किशोर तो नए बाशिंदे हैं। बहरहाल, कांग्रेस पर उनका कोई ज़ोर नहीं चला, लेकिन कुछ समय तक कांग्रेस के इर्द-गिर्द होने से उनका चर्चा में बने रहने का मकसद तो पूरा हो ही गया। अब प्रशांत किशोर खुद को न राजनीति में मानते हैं, न रणनीतिकार मानते हैं, लेकिन वे लोगों के लिए काम करने का दावा करते हैं। और इसके तहत गांधी जयंती से उन्होंने बिहार में पश्चिमी चंपारण के भितिहरवा से जनसुराज पदयात्रा की शुरुआत की है। 
वैसे तो इस पदयात्रा के तीन ख़ास मक़सद हैं। पहला, समाज की मदद से जमीनी स्तर पर सही लोगों को चिन्हित कर एक राजनीतिक व्यवस्था बनाने के लिए लोकतांत्रिक मंच पर लाने का प्रयास करना। दूसरा स्थानीय समस्याओं और संभावनाओं को बेहतर तरीके से समझना और उसके आधार पर शहरों और पंचायतों की प्राथमिकताओं को सूचीबद्ध कर उनके विकास का ब्लूप्रिंट तैयार करना। और तीसरा बिहार के समग्र विकास के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आर्थिक विकास, कृषि उद्योग और सामाजिक न्याय जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर विशेषज्ञों के सुझाव लेना और लोगों के लिए अगले 15 साल का विजन डॉक्यूमेंट तैयार करना। इन मकसदों से साफ़ है कि ये यात्रा राजनैतिक कारणों से ही निकाली जा रही है। इसमें कोई हर्ज भी नहीं है, क्योंकि लोकतांत्रिक राजनीति में नयी-नयी लहरों के उठने से ताज़गी बनी रहती है। बस देखना ये है कि करीब 12 से 15 महीने तक होने वाली इस पदयात्रा के बाद प्रशांतv किशोर किस तरह की राजनैतिक भूमिका में नज़र आएंगे। फिलहाल वे पदयात्रा के जरिए जदयू और राजद को लगातार घेर रहे हैं।
हाल ही में उनका एक बयान आया था कि लालू जी का लड़का 9वीं पास है और वो उप मुख्यमंत्री है, अगर आपका बच्चा 9वीं पास होगा तो क्या उसे चपरासी की भी नौकरी मिलेगी। बेरोज़गारी और योग्यता पर अपनी चिंता ज़ाहिर करना एक बात है, लेकिन प्रशांत किशोर का बयान निहायत अलोकतांत्रिक और संकीर्ण नजरिए का है। अगर किसी कम पढ़े-लिखे किसान, मजदूर या वंचित तबके के प्रत्याशी को जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है और वह सरकार में ऊंचे ओहदे तक पहुंचता है, तो यह लोकतंत्र की खासियत है, खामी नहीं है।तेजस्वी यादव भले लालू प्रसाद के बेटे हैं, लेकिन उन्हें विधायक जनता ने चुना है और उन पर सवाल उठाना जनता की समझदारी पर ऊंगली उठाने जैसा है। 
प्रशांत किशोर को अगर परिवारवाद का मसला उठाना ही है, तो इसके लिए उन्हें खेल संघों से लेकर कई अन्य संस्थानों पर नज़र डालनी चाहिए, जहां केवल पारिवारिक रसूख के कारण नियुक्तियां हुई हैं। तेजस्वी यादव के लिए अभी जो विचार व्यक्त किए गए, वैसे ही कभी राबड़ी देवी के लिए भी किए जाते थे। इसी तरह संसद में फूलन देवी के सदस्य बनने पर तंग बुद्धि लोगों ने आपत्ति ज़ाहिर की थी। जबकि चुनाव लड़ने की योग्यता रखने वाला कोई भी व्यक्ति संसद या विधानसभा तक जाने की पात्रता रखता है और इस बारे में आखिरी निर्णय जनता का होता है।
इस एक प्रकरण से जाहिर हो जाता है कि प्रशांत किशोर किस संकीर्ण विचारधारा के साथ राजनीति करना चाहते हैं। शिक्षा को चुनाव लड़ने का पैमाना बनाना, अंग्रेजी की जगह हिन्दी को प्रोत्साहन देना ये सारी बातें सुनने में एकबारगी लुभावनी लग सकती हैं। लेकिन इनसे आखिरकार ग़रीब, वंचित तबके के और पीछे रहने की व्यवस्था मजबूत हो जाती है। हिन्दी का शोर मचाते रहने पर भी अमीरों के बच्चे अंग्रेजी पढ़कर आगे बढ़ जाएंगे, उच्च शिक्षा उनके लिए उपलब्ध रहेगी और फिर वे ही अगर चुनाव भी जीतेंगे, तो क्या यह राजनीति का एकतरफा विकास नहीं होगा। क्या इसमें लोकतंत्र में असंतुलन नहीं बनेगा। लालू प्रसाद ने हमेशा इसी असंतुलन के खिलाफ काम किया और सामाजिक न्याय की अवधारणा को मजबूत किया। अब उनके साथ नीतीश कुमार भी हाथ मिला चुके हैं। लेकिन ऐसे में प्रशांत किशोर इन दोनों के खिलाफ एक नयी मुहिम छेड़ चुके हैं। इस मुहिम की असलियत से पर्दा कब उठेगा, यह देखना होगा।



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