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                                  केजरीवाल साहब को क्या हुआ है 

केजरीवाल साहब को क्या हुआ है 

प्रेमकुमार मणि 

दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल साहब राजनीति में आने के पूर्व ऊँचे अफसर थे और मेरी जानकारी के अनुसार रेवेन्यू मामलों से ही जुड़े थे. कुछ मामलों में अब तक उनका प्रशंसक रहा हूँ. उनकी एक किताब है -' स्वराज ' . उसे बहुत पहले पढ़ा था. दिल्ली में उनके मुख्यमंत्रित्व में कुछ बेहतर काम हुए हैं. 2011 में मैंने दिल्ली के शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली के मामलों का एक अध्ययन किया था और प्रभावित हुआ था. खास कर शिक्षा क्षेत्र में किए गए कार्य दूसरे प्रदेशों केलिए भी अनुकरणीय थे. तब कांग्रेस की हुकूमत थी और शीला दीक्षित मुख्यमंत्री थीं. अपने पूर्ववर्ती सरकार के कार्यों को केजरीवाल साहब ने बहुत आगे बढ़ाया है,ख़ास कर शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र के कार्यों को. वहां के आम आदमी को यह महसूस होता है कि सरकार उनके साथ है, या उनकी सरकार है.
 
लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह कुछ भी कहते रहें. दीवाली के रोज उनका बयान आया कि भारतीय रिज़र्व बैंक अपने नोटों पर गांधी के साथ लक्ष्मी -गणेश की तस्वीर भी छापें तो अच्छा. वह उद्यम के साथ आस्था का फलसफा भी समझा रहे थे. अब इस पर कोई टिप्पणी करने के पहले मैंने  स्वयं अनेक बार सोचा कि केजरीवाल साहब ने किन मनःस्थितियों में यह बयान दिया है. जब वह यह बोल रहे थे तब फोटो में उनके माथे के ऊपर भगत सिंह की तस्वीर उझक रही थी . सुना है कि उनके दफ्तर में बाबा साहब आम्बेडकर और भगत सिंह की तस्वीर जरूर रहती है. जो भगत सिंह की शख्सियत से परिचित होते  हैं, वे उनके मशहूर लेख ' मैं नास्तिक क्यों हूँ ' से भी परिचित होते हैं. जो बाबा साहब आम्बेडकर से परिचित हैं ,वे उनकी इस प्रसिद्ध उक्ति से भी परिचित होते हैं कि लोकतान्त्रिक राजनीति में भक्ति और आस्था का कोई स्थान नहीं होना चाहिए. यहाँ तक कि हिन्दू धर्म ग्रन्थ मद्भगवत गीता का विरोधभास यह है कि वहां आस्था की वकालत तो है,लेकिन उसका इष्ट विवेक ही  है. वह आस्था के विघटन की चिंता नहीं करता, विवेक के विघटन की चिन्ता करता है. गीता का यही मूल सन्देश है कि क्रोध व अज्ञान विवेक का नाश करता है और जिसका विवेक विनष्ट हो जाता है वह सही निर्णय नहीं लेने के कारण स्वयं विनष्ट हो जाता है. इसलिए वह स्थितप्रज्ञ होने की सिफारिश करता है. 
राजनीति में स्थितप्रज्ञता का अर्थ होगा हर समय जनता और संविधान के सापेक्ष बने रहना. राजनीतिज्ञ जब भी कुछ बोले तब उसके बहुआयामी प्रभावों का आकलन करे. अन्यथा देश -समाज का नुकसान होता है. हमारे देश -समाज का अनुभव यही है कि धर्म या मजहब जब भी राजनीति में प्रभावी हुआ है ,हमारा नुकसान हुआ है. देश का बंटवारा इसी का नतीजा है. इसलिए हमारे कर्णधारों ने एक धर्मनिरपेक्ष संविधान की व्यवस्था की . देवी -देवताओं और धर्म- मजहब को राजनीतिक उपक्रमों से दूर रखा. 
ऐसे में  केजरीवाल साहब का बयान हमें चौंकाता है. क्या वह भाजपा से डर गए हैं, या फिर उससे भी बड़ी हिंदुत्व की लकीर खींचने की वह कोशिश करना चाह रहे हैं, जो कि उनके गुजरात अभियान में काम आए. राजनीति उन्हें जो करनी हो वह करें, लेकिन उन्हें अपने उस शपथ को तो अवश्य याद रखना था, जो उन्होंने मुख्यमंत्री पद संभालते वक्त ली होगी. ओहदा संभालते समय संविधान की मर्यादा बनाए रखने की शपथ लेनी होती हैं. यह इसलिए कि ओहदेदार समझ-बूझ कर कोई बात करे या रखे. मुझे प्रतीत होता है कि उनका वक्तव्य भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्ष मर्यादा का उल्लंघन  करता है. वह कह सकते हैं कि संविधान की मर्यादा का उल्लंघन मैं अकेला नहीं कर रहा हूँ. भाजपा नेता रोज कर रहे हैं. वह गलत भी नहीं हैं. भाजपा तो भाजपा यहाँ तक कि लालू प्रसाद ने रेल मंत्री रहते रेल मंत्रालय में विश्वकर्मा की मूर्ती स्थापित करने की बात की थी.  वह भी उनका वक्तव्य लोकसभा में था. मैंने उस समय भी एक लेख लिख कर उसका विरोध किया था. 
 जो हो केजरीवाल साहब के इस पतन से मैं दुखी हूँ. पढ़े -लिखे सुबुद्ध लोग भी राजनीति में आकर यही सब करेंगे -बोलेंगे तब भारतीय राजनीति के अधःपतन को भला कौन रोक सकता है !


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